गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 231

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-प्रवेशिका


क्षिप्रं भवति धर्मात्‍मा शश्‍वच्छान्ति निगच्‍छति।
कौन्‍तेय प्रतिजानीहि न मे भक्‍त: प्रणश्‍यति।।17॥

वह तुरंत धर्मात्‍मा हो जाता है और निरंतर शांति पाता है। हे कौंतेय! तू निश्‍चयपूर्वक जानना कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।  

मन्‍मना भव मद्भक्‍तो मद्याजी मां नमस्‍कुरु।
मामेवैष्‍यसि युक्‍त्‍वैवमात्‍मानं मत्‍परायण:।।18॥

मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरे निमित्त यज्ञ कर, मुझे नमस्‍कार कर, इससे मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ जोड़कर तू मुझे ही पावेगा।  

अहं सर्वस्‍य प्रभवो मत्त: सर्व प्रवर्तते।
इति मत्‍वा भजन्‍ते मां बुधा भावसमन्विता:।।19॥

मैं सबकी उत्‍पत्ति का कारण हूँ और सब मुझसे ही प्रवृत्त होते हैं, यह जानकर समझदार लोग भावपूर्वक मुझे भजते हैं।  

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्‍त: परस्‍परम्।
कथयन्‍तश्‍च मां नित्‍यं तुष्‍यन्ति च रमन्ति च।।20॥

मुझमें चित्त लगाने वाले, मुझे प्राणार्पण करने वाले एक- दूसरे को बोध कराते हुए, मेरा ही नित्‍य कीर्तन करते हुए, संतोष और आनंद में रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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