गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
सातवां अध्याय
राग-द्वेष के द्वारा सुख-दुख होते ही रहते हैं और उसके कारण जगत मोहग्रस्त रहता है, पर जो उसमें से छूट गये हैं और जिनके आचार-विचार निर्मल हो गये हैं, वे तो अपने व्रत में निश्चल रहकर निरंतर मुझे ही भजते हैं। वे पूर्ण ब्रह्मरूप से सब प्राणियों में भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले जीवरूप में रहे हुए मुझे और मेरे कर्म को जानते हैं। यों जो मुझे अभिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ रूप से पहचानते हैं और इससे जिन्होंने समत्व प्राप्त किया है, वे मृत्यु के अनंतर जन्म–मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं; क्योंकि इतना जान लेने पर उसका मन अन्यत्र नहीं भटकता और सारे जगत को ईश्वरमय देखते हुए वे ईश्वर में ही समा जाते हैं।ʼʼ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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