गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-प्रवेशिका
मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय। हे धनंजय! मुझसे उच्च दूसरा कुछ नहीं है। जैसे धागे में मनके पिरोये हुए रहते हैं, वैसे यह मुझमें पिरोया हुआ है। बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। हे पार्थ! समस्त जीवों का सनातन बीज मुझे जान। बुद्धिमान की बुद्धि मैं हूं, तेजस्वी का तेज मैं हूँ। अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:। हे पार्थ! चित्त को अन्यत्र नहीं रखे बिना जो नित्य और निरंतर मेरा ही स्मरण करता है, वह नित्युक्त योगी मुझे सहज में पाता है। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। जो लोग अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मुझे भजते है, उन नित्य मुझमें ही रत हरनेवालों के योग-क्षेम का भार मैं उठाता हूँ। टिप्पणी - योग अर्थात वस्तु को प्राप्त करना और क्षेम अर्थात प्राप्त वस्तु को संभालकर रखना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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