गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सत्रहवां अध्याय
श्रद्धात्रयविभागयोग
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते। सत्य और कल्याण के अर्थ में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग होता है। और हे पार्थ! भले कामों में भी ‘सत्’ शब्द व्यवहृत होता है। यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते। यज्ञ, तप और दान में दृढता को भी सत् कहते हैं। तत के निमित्त ही कर्म है, ऐसा संकल्प भी सत कहलाता है। टिप्पणी- उपर्युक्त तीन श्लोकों का भावार्थ यह हुआ कि प्रत्येक कर्म ईश्वरार्पण करके ही करना चाहिए, क्योंकि ओम ही सत है, सत्य है। उसे अप्रण किया हुआ ही फलता है। अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। हे पार्थ! जैसे यज्ञ, दान, तप या दूसरा कार्य बिना श्रद्धा के होता है वह असत कहलाता है। वह न तो यहाँ के काम का है, न परलोक के। ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद अर्थात ब्रह्मविद्यान्तर्गत योगशास्त्र के श्रीकृष्णार्जुनसंवाद का श्रद्धात्रयविभागयोग, नामक सत्रहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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