गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सोलहवां अध्याय
दैवासुरसंपद् विभागयोग
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् । आज मैंने यह पाया, यह मनोरथ अब पूरा करूंगा, इतना धन मेरे पास है, फिर कल इतना और मेरा हो जायगा, इस शत्रु को तो मारा, दूसरे को भी मारूंगा, मैं सर्व सम्पन्न हूं, भोगी हूं, सिद्ध हूं, बलवान हूं, सुखी हूं, श्रीमान हूं, कुलीन हूं, मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूंगा, दान दूंगा, मौज करूंगा- अज्ञान से मूढ़ हुए लोग ऐसा मानते हैं और अनेक भ्रांतियों में पड़े हुए, मोह जाल में फंसे, विषय भोग में मस्त हुए हुए अशुभ नरक में गिरते हैं। आत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता: अपने को बड़ा मानने वाले, अकड़बाज, धन तथा मान के मद में मस्त हुए ये लोग दंभ से विधि रहित नाम मात्र के ही यज्ञ करते हैं। अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: । अहंकारं, बल, घमंड, काम और क्रोध का आश्रय लेने वाले, निंदा करने वाले और उनमें तथा दूसरों में रहने वाला जो मैं, उसका वे द्वेष करने वाले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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