गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्याय
पुरुषोत्तम योग
जिसने मान-मोह का त्याग किया है, जिसने आसक्ति से होने वाले दोषों को दूर किया है, जो आत्मा में नित्य निमग्न है, जिसके विषय शांत हो गये हैं, जो सुख-दु:ख रूपी द्वंद्वों से मुक्त है वह ज्ञानी अविनाशी पद को पाता है। न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: । वहाँ सूर्य को, चंद्र को या अग्नि को प्रकाश नहीं देना पड़ता। जहाँ जाने वाले को फिर जन्मना नहीं पड़ता, वह मेरा परमधाम है। ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । मेरा ही सनातन अंश जीव लोक में जीव होकर प्रकृति में रहने वाली पांच इंद्रियों को और मन को आकर्षित करता है। शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: । जीव बना हुआ यह मेरा अंशरूपी ईश्वर जब शरीर धारण करता है या छोड़ता है तब यह उसी तरह मन के साथ इंद्रियों को साथ ले जाता है। जैसे वायु आस-पास के मंडल में से गंध ले जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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