गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौहदवां अध्याय
गुणत्रयविभागयोग
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। हे कुरुनंदन! जब तमोगुण की वृद्धि होती है तब अज्ञान, मंदता, असावधानी और मोह उत्पन्न होता है। यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्। सत्वगुण की वृद्धि हुई होने पर देहधारी मरता है तो वह उत्तम ज्ञानियों के निर्मल लोक को पाता है। रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते। रजोगुण में मृत्यु होने पर देहधारी कर्मसंगी के लोक में जन्मता है और तमोगुण में मृत्यु पाने वाला मूढ़ योनि में जन्मता है। टिप्पणी- कर्मसंगी से तात्पर्य है मनुष्य लोक और मूढ़ योनि से तात्पर्य है पशु इत्यादि लोक। कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम्। सत्कर्म का फल सात्त्विक और निर्मल होता है। राजसी कर्म का फल दु:ख होता है और तामसी कर्म का फल अज्ञान होता है। टिप्पणी- जिसे हम लोग सुख- दु:ख मानते हैं यहाँ उस सुख- दु:ख का उल्लेख नहीं समझना चाहिए। सुख से मतलब है आत्मानंद, आत्मप्रकाश। इससे जो उलटा है वह दु:ख है। 17 वें श्लोक में यह स्पष्ट हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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