गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तेरहवां अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रविभागयोग
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:। इस देह में स्थित जो परमपुरुष है वह सर्वसाक्षी, अनुमति देने वाला, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा भी कहलाता है। टिप्पणी- प्रकृति को हम लोग लौकिक भाषा में माया के नाम से पुकारते हैं। पुरुष जीव है। माया अर्थात मूलस्वभाव के वशीभूत हो जीव सत्व, रजस या तमस से होने वाले कार्यों का फल भोगता है और इससे कर्मानुसार पुनर्जन्म पाता है। य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह। जो मनुष्य इस प्रकार पुरुष और गुणमयी प्रकृति को जानता है, वह सब प्रकार कार्य करता हुआ भी फिर जन्म नहीं पाता। टिप्पणी- 2, 9, 12 और अन्यान्य अध्यायों की सहायता से हम जान सकते हैं कि यह श्लोक स्वेच्छाचार का समर्थन करने वाले नहीं है, बल्कि भक्ति की महिमा बतलाने वाला है। कर्म-मात्र जीवन के लिए बंधनकर्ता हैं, किन्तु यदि वह सब कर्म परमात्मा को अपर्ण कर दे तो वह बंधनयुक्त हो जाता है और इस प्रकार जिसमें से कर्तृत्वरूपी अहंभाव नष्ट हो गया है और जो अंतर्यामी को चौबीस घंटे, पहचान रहा है। वह पाप कर्म कर ही नहीं सकता। पाप का मूल ही अभिमान है। जहाँ ʻमैं̕ नहीं है वहाँ पाप नहीं है। यह श्लोक पाप कर्म करने की युक्ति बतलाता है। ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। कोई ध्यान-मार्ग से आत्मा द्वारा आत्मा को अपने में देखना है कितने ही ज्ञान-मार्ग से और दूसरे कितने ही कर्म मार्ग से। अन्ये त्वेमवजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य: उपासते। और कोई इन मार्गों को न जानने के कारण दूसरों से परमात्मा के विषय में सुनकर, सुने हुए पर ब्रह्म रखकर और उसमें परायण रहकर उपासना करते हैं और वे भी मृत्यु को तर जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज