गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
बारहवां अध्याय
भक्तियोग
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोशि मयि स्थिरम्। जो तू मुझमें अपना मन स्थिर करने में असमर्थ हो तो, हे धनंजय! अभ्यास-योग द्वारा मुझे पाने की इच्छा रखना। अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। ऐसा अभ्यास रखने में भी तू असमर्थ हो तो कर्म मात्र मुझे अर्पण कर और इस प्रकार मेरे निमित्त कर्म करते-करते भी तू मोक्ष पावेगा। अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तं मद्योगमाश्रित:। और जो मेरे निमित्त कर्म करने भर की तेरी शक्ति न हो यो यत्नपूर्वक सब कर्मों के फल का त्याग कर। श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासा- अभ्यास-मार्ग से ज्ञान मार्ग श्रेयस्कर है। ज्ञान-मार्ग से ध्यान-मार्ग विशेष है और ध्यान-मार्ग से कर्म फल त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि इस त्याग के अंत में तुरंत शांति ही होती है। टिप्पणी- अभ्यास अर्थात चित्त-वृत्ति-निरोध की साधना, ज्ञान अर्थात श्रवण-मननादि, ध्यान अर्थात उपासना। इनके फलस्वरूप यदि कर्म-फल-त्याग न दिखाई दे तो वह अभ्यास अभ्यास नहीं है, ज्ञान ज्ञान नहीं है और ध्यान ध्यान नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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