गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
बारहवां अध्याय
भक्तियोग
कलेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। जिनका चित्त अव्यक्त में लगा हुआ है उन्हें कष्ट अधिक है। अव्यक्त गति को देहधारी कष्ट से ही पा सकता है। टिप्पणी- देहधारी मनुष्य अमूर्त स्वरूप की केवल कल्पना ही कर सकता है, पर उसके पास अमूर्त स्वरूप के लिए एक भी निश्चयात्मक शब्द नहीं है, इसलिए उसे निषेधात्मक ʻनेति̕ शब्द से संतोष करना ठहरा। इस दृष्टि से मूर्ति-पूजा का निषेध करने वाले भी सूक्ष्म रीति से विचारा जाय तो मूर्ति-पूजक ही होते हैं। पुस्तक की पूजा करना, ये सभी साकार पूजा के लक्षण हैं। तथापि साकार के उस पार निराकार अचिंत्य स्वरूप है, इतना तो सबके समझ लेने में ही निस्तार है। भक्ति की पराकाष्ठा यह है कि भक्त भगवान में विलीन हो जाय और अंत में केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाय। पर इस स्थिति को साकार द्वारा सुलभता से पहुँचा जा सकता है, इसलिए निराकार को सीधे पहुँचने का मार्ग कष्टसाध्य बतलाया है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:। परंतु हे पार्थ! जो मुझमें परायण रहकर, सब कर्म मुझे समर्पण करके, एक निष्ठा से मेरा ध्यान धरते हुए मेरी उपासना करते हैं और मुझमें जिनका चित्त पिराया हुआ है उन्हें मृत्युरूपी संसार-सागर से मैं झटपट पार कर लेता हूं मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। अपना मन मुझमें लगा, अपनी बुद्धि मुझमें रख, इससे इस जन्म के बाद नि:संशय मुझे ही पावेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज