गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 17

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
चौथा अध्याय


वास्‍तव में तो रामनाम जाने-अनजाने हमेशा ही होना चाहिए, जैसे संगीत में तंबूरा। पर हाथ जो काम करते हों, उसमें हम एक ध्‍यान न हों तो रामनाम का इच्‍छापूर्वक रटन होना चाहिए। चर्खा चलाते हुए हम बातें करें, कुछ सुनें या और कुछ करें तो यह‍ क्रिया यज्ञ तो नहीं होगी। यदि यह यज्ञ कर्त्तव्‍य है तो उतने समय के लिए उसमें लीन हो जाना चाहिए। जिसका सारा जीवन यज्ञ रूप है और जो अनासक्‍त है, वह एक समय में एक ही काम करेगा। इतना जानते हुए भी (अल्‍पाधिक प्रमाण में) मैं ही पहला पापी ठहरता हूं, क्‍योंकि कह सकते हैं कि मैंने किसी दिन चुपचाप एकांत में बैठकर अर्थात मौन धर कर नहीं काता।

मौनवार के दिन कातते-कातते डाक सुनता या किसी की कोई बात सुननी होती तो वह सुनता। यह कुटेव यहाँ भी नहीं गई। इसलिए कोई ताज्‍जुब नहीं कि कातने में बहुत नियमित होते हुए भी मैं सुस्‍त रह गया और घंटे में मुश्किल से 200 तार तक अब पहुँचा हूं! और भी अनेक दोष अपने में पाता हूं, जैसे तार टूटना, माल बनाना न जानना, चमरख का अल्‍पज्ञान, रूई की किस्‍म न पहचानना, समानता वगैरह पूरी तरह से न निकाल सकना, तार की परख न कर सकना इत्यादि। क्या यह सब किसी याज्ञिक को शोभा देता है? फिर खादी की गति धीमी रह गई तो इसमें क्‍या आश्‍चर्य है? यदि दरिद्रनारायण है और उसके होने में कोई शक नहीं है, और यदि उसकी प्रसादी खादी है, और यह कहने वाला, जानने वाला जो कुछ कहो वह मैं हूं, फिर भी मेरा अमल कितना ढीला-ढाला है। इसलिए इस विषय में किसी और को दोषी ठहराने जी नहीं चाहता है। मैं तो सिर्फ तुम्हें अपने दोष का, दु:ख का और उसमें से उत्‍पन्‍न होने वाले खयाल का और ज्ञान का दर्शन कराना चाहता हूँ। यद्यपि काका के साथ यदा-कदा ऐसी बातें हुई हैं, तथापि इतनी स्‍पष्‍टता से यही पहले-पहल तुमसे कर रहा हूँ और यह स्‍पष्‍टता भी आई तुम्‍हारे उस फ्रेंच को चरखे के साथ जोड़ने के कारण। तुमने जो किया, उसमें मैं तुम्‍हारा तनिक भी दोष नहीं पाता। मैं देख रहा हूँ कि चर्खे का कैसा कच्‍चा ʻमंत्राʼ हूँ मैं। मंत्र को तो जाना, पर उसकी पूरी विधि आचार में नहीं उतारी, इसलिए मंत्र अपनी पूरी शक्ति नहीं प्रकट कर सका।

चर्खे की भाँति ही इस बात को सारे जीवन पर घटाकर देखो तो कल्‍पना में तो तुम्‍हें जीवन की अद्भुत शांति का अनुभव होगा और सफलता का भी। ʻयोग: कर्मसु कौशलम्ʼ का तात्‍पर्य यह है। इस बात को ध्‍यान मे रखकर जितना हो सके, उतना ही करने को हाथ में लें और संतोष मानें। मेरा दृढ़ विश्‍वास है कि इससे हम अपने को और समाज को अधिक-से-अधिक आगे बढ़ाने में अपना कर्त्तव्‍य करते हैं। जब तक इसका पूरा-पूरा अमल न हो ले तब तक तो यह कोरा पांडित्‍य ही कहा जायगा। दिन-दिन इस दिशा में बढ़ तो रहा हूँ। बाहर निकलने पर क्‍या होगा, वह भगवान जानें। तुम इसमें से बन सके तो इतना तो अमल में ला सकते हो कि यज्ञ के निमित्त जितने तार तय कर लो उतने तो शास्‍त्रीय रीति से कातो। बाकी तो चाहे जिस दिशा में हिन्‍दुस्‍तान की संपत्ति बढ़ाने के इरादे से कातते रहो। अभी लिखते जाने की इच्‍छा होती है। पर अब बस करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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