गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूपदर्शनयोग
अदृष्टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्ट्वा पहले न देखा हुआ आपका ऐसा रूप देखकर मेरे रोएं खड़े हो गए हैं और भय से मेरा मन व्याकुल हो गया है। इसलिए, हे देव! अपना पहले का रूप दिखलाइए। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइए। किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- पूर्व की भाँति आपका- मुकुट, गदा चक्रधारी का दर्शन करना चाहता हूं! हे सहस्त्रबाहु! हे विश्वमूर्ति! अपना चतुर्भुज रूप धारण कीजिए। श्रीभगवानुवाच श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तुझ पर प्रसन्न होकर तुझे मैने अपनी शक्ति से अपना तेजोमय, विश्वव्यापी, अनंत, परम, आदि रूप दिखाया है। यह तेरे सिवा और किसी ने पहले नहीं देखा है। न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै- हे कुरुप्रवीर! वेदाभ्यास से, यज्ञ से, अन्यान्य शास्त्रों के अध्ययन से, दान से, क्रियाओं से या उग्र तपों से तेरे सिवा दूसरा कोई यह मेरा रूप देखने में समर्थ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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