गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूपदर्शनयोग
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं मित्र जानकर और आपकी यह महिमा न जानकर, ʻहे कृष्ण!̕ʻ हे यादव!̕ʻ हे सखा!̕ इस प्रकार संबोधन कर मुझसे भूल में या प्रेम में भी जो अविवेक हुआ हो और विनोदार्थ खेलते, सोते, बैठते या खाते अर्थात सोहबत में आपका जो कुछ अपमान हुआ हो उसे क्षमा करने के लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। पितासि लोकस्य चराचरस्य स्थावर-जंगम जगत के आप पिता हैं। आप उसके पूज्य और श्रेष्ठ गुरु हैं। आपके समान कोई नहीं है तो आपसे अधिक तो कहाँ से हो सकता है? तीनों लोक में आपके सामर्थ्य का जोड़ नहीं है। तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं इसलिए साष्टांग नमस्कार करके आपसे, पूज्य ईश्वर से प्रसन्न होने की प्रार्थना करता हूँ। हे देव! जिस तरह पिता पुत्र को, सखा को सहन करता है वैसे आप मेरे प्रिय होने के कारण मेरे कल्याण के लिए मुझे सहन करने योग्य हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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