गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 15

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
चौथा अध्याय


यह अवश्य है कि ऐसे याज्ञिक अपने धंधे से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। पर वे धन्धा आजीविका के निमित्त नहीं करते, आजीविका उनके लिए उसे धंधे का गौण फल है। मोतीलाल पहले भी दर्जी का धंधा करता था और ज्ञान होने के बाद दर्जी बना रहा। भावना बदल जाने से उसका धंधा यज्ञ रूप बन गया, उसमें पवित्रता आ गई और पेशे में दूसरे के सुख का विचार दाखिल हो गया। उसी समय उसके जीवन में कला का प्रवेश हो गया। यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है, सच्चा रस उसी में है, क्योंकि उसमें से रस के नित्य नये झरने प्रकट होते हैं। मनुष्य उन्हें पीकर अघाता नहीं है, न वे झरने कभी सूखते हैं। यज्ञ यदि भार रूप जान पड़े तो यज्ञ नहीं है, जो अखरे वह त्याग नहीं है। भोग का अंत नाश है, त्याग का अन्त अमरता। रस स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, रस तो हमारी वृत्ति में मौजूद है। एक को नाटक के पर्दों में मजा आता है, अन्य को आकाश में नित्य नये-नये प्रकट होने वाले दृश्यों में। रस परिशीलन का विषय है। जो रस रूप से बचपन में सिखाया जाता है, जिसे रस के नाम से जनता में प्रवेश कराया जाता है, वह रस माना जाता है। हम ऐसे उदाहरण पा सकते हैं कि जिनमें एक प्रजा को रसमय लगने वाली चीज दूसरी प्रजा को रसहीन लगती है।

यज्ञ करने वाले अनेक सेवक मानते हैं कि हम निष्काम भाव से सेवा करते हैं, अत: लोगों से आवश्यकता भर को और अनावश्यक भी, लेने का हमें परवाना मिल गया है। जहाँ किसी सेवक के मन में यह विचार आया कि उसकी सेवकाई गई, सरदारी आई। सेवा में अपनी सुविधा के विचार की गुंजाइश ही नहीं होती है। सेवक की सुविधा स्वामी-ईश्वर-देखे, देनी होगी तो वह देगा। यह खयाल रखते हुए सेवक को चाहिए कि जो कुछ आ जाय, सबको न अपना बैठे। आवश्यकता भर को ही ले, बाकी का त्याग करे। अपनी विधा की सुरक्षा न होने पर भी शांत रहे, रोष न करे, मन में भी खिन्नता न लावे। याज्ञिक का बदला, सेवक की मजदूरी, यज्ञ सेवा ही है। उसी में उसका संतोष है।

सेवा-कार्य में बेगार भी नहीं काटी जाती। उसे अंत के लिए नहीं छोड़ा जाता। अपना काम तो संवारे, लेकिन पराया, बिना पैसे के करना, इस खयाल से जैसा-तैसा या जब चाहे तब करने में भी हर्ज न समझने वाला, यज्ञ का ककहरा भी नहीं जानता। सेवा में तो सोलहों सिंगार भरने पड़ते हैं, अपनी सारी कला उसमें खर्च कर देनी पड़ती है। पहले यह, फिर अपनी सेवा। मतलब यह कि शुद्ध यज्ञ करने वाले के लिए अपना कुछ नहीं है। उसने सब ʻकृष्णार्पणʼ कर दिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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