गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
चौथा अध्याय
यज्ञ करने वाले अनेक सेवक मानते हैं कि हम निष्काम भाव से सेवा करते हैं, अत: लोगों से आवश्यकता भर को और अनावश्यक भी, लेने का हमें परवाना मिल गया है। जहाँ किसी सेवक के मन में यह विचार आया कि उसकी सेवकाई गई, सरदारी आई। सेवा में अपनी सुविधा के विचार की गुंजाइश ही नहीं होती है। सेवक की सुविधा स्वामी-ईश्वर-देखे, देनी होगी तो वह देगा। यह खयाल रखते हुए सेवक को चाहिए कि जो कुछ आ जाय, सबको न अपना बैठे। आवश्यकता भर को ही ले, बाकी का त्याग करे। अपनी विधा की सुरक्षा न होने पर भी शांत रहे, रोष न करे, मन में भी खिन्नता न लावे। याज्ञिक का बदला, सेवक की मजदूरी, यज्ञ सेवा ही है। उसी में उसका संतोष है। सेवा-कार्य में बेगार भी नहीं काटी जाती। उसे अंत के लिए नहीं छोड़ा जाता। अपना काम तो संवारे, लेकिन पराया, बिना पैसे के करना, इस खयाल से जैसा-तैसा या जब चाहे तब करने में भी हर्ज न समझने वाला, यज्ञ का ककहरा भी नहीं जानता। सेवा में तो सोलहों सिंगार भरने पड़ते हैं, अपनी सारी कला उसमें खर्च कर देनी पड़ती है। पहले यह, फिर अपनी सेवा। मतलब यह कि शुद्ध यज्ञ करने वाले के लिए अपना कुछ नहीं है। उसने सब ʻकृष्णार्पणʼ कर दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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