गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
आठवां अध्याय
अक्षरब्रह्म्रयोग
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:। हे पार्थ! चित्त को अन्यत्र कहीं रखे बिना जो नित्य और निरंतर मेरा ही स्मरण करता है वह नित्ययुक्त योगी मुझे सहज में पाता है। मासुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्। मुझे पाकर परमगति को पहुँचे हुए महात्मा दु:ख के घर अशाश्वत पुनर्जन्म को नहीं पाते। आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावतिंनोऽर्जुन। है कौंतेय! ब्रह्मलोक से लेकर सभी लोक फिर-फिर आने वाले हैं, परंतु मुझे पाने के बाद मनुष्य को फिर जन्म नहीं लेना होता। सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:। हजार युग तक ब्रह्मा का एक दिन और हजार युग तक की ब्रह्मा की एक रात, जो जानते हैं वे रात-दिन के जानने वाले हैं। टिप्पणी- तात्पर्य, हमारे चौबीस घंटे के रात-दिन कालचक्र के अंदर एक क्षण से भी सूक्ष्म हैं। उनकी कोई गिनती नहीं है। इसलिए उतने समय में मिलने वाले भोग आकाश पुष्पवत हैं, यों समझकर हमें उनकी ओर से उदासीन रहना चाहिए और उतना ही समय हमारे पास हैं उसे भगवद् भक्ति में, सेवा में, व्यतीत कर सार्थक करना चाहिए और यदि तत्काल आत्मदर्शन न हो तो धीरज रखना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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