गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
आठवां अध्याय
अक्षरब्रह्म्रयोग
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। अंत काल में मुझे ही स्मरण करते-करते जो देहत्याग करता है वह मेरे स्वरूप को पाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। अथवा तो हे कौंतेय! नित्य जिस-जिस स्वरूप का ध्यान मनुष्य धरता है, उस-उस स्वरूप को अंत काल में भी स्मरण करता हुआ वह देह छोड़ता है और इससे वह उस-उस स्वरूप को पाता है। तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। इसलिए सदा मुझे स्मरण कर और जूझता रह; इस प्रकार मुझमें मन और बुद्धि रखने से अवश्य मुझे पावेगा। अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। हे पार्थ! चित्त को अभ्यास से स्थिर करके और कहीं न भागने देकर जो एकाग्र होता है वह दिव्य परमपुरुष को पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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