गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
चौथा अध्याय
पर इस वचन से किसी को डरना नहीं चाहिए। मन को स्वच्छ रखकर सेवा का आरंभ करने वाले को उसकी आवश्यकता दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती जाती है और वैसे ही उसकी श्रद्धा बढ़ती जाती है। जो स्वार्थ छोड़ने को तैयार ही नहीं है, अपनी जन्म की स्थिति को पहचानने को तैयार ही नहीं, उसके लिए तो सेवा के सब मार्ग मुश्किल हैं। उसकी सेवा में तो स्वार्थ की गंध आती ही रहेगी, पर ऐसे स्वार्थी जगत में कम ही मिलेंगे। कुछ-न-कुछ नि:स्वार्थ सेवा हम सब जाने-अनजाने करते ही रहते हैं। यही चीज विचारपूर्वक करने लगने से हमारी पारमार्थिक सेवा की वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती रहेगी। उसमें हमारा सच्चा सुख है और जगत का कल्याण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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