गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयते। आत्मा से मनुष्य आत्मा का उद्धार करे, उसकी अधोगति न करे। आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:। उसी का आत्मा बन्धु है जिसने अपने बल से मन को जीता है। जिसने मन को जीता नहीं वह अपने ही साथ शत्रु का-सा बर्ताव करता है। जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित:। जिसने अपना मन जीता है और जो संपूर्ण रूप से शांत हो गया है उसकी आत्मा सरदी-गरमी, दु:ख-सुख और मान-अपमान में समान रहती है। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:। जो ज्ञान और अनुभव से तृप्त हो गया है, जो अविचल है, जिसने इंद्रियों को जीत लिया है और जिसे मिट्टी, पत्थर और सोना समान है, ऐसा ईश्वरपरायण मनुष्य योगी कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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