गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देता है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। ज्ञान के समान इस संसार में दूसरा कुछ पवित्र नहीं है। योग में समत्व में पूर्णता प्राप्त मनुष्य समय पर अपने-आपमें उस ज्ञान को पाता है। श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं श्रद्धावान ईश्वरपरायण, जितेंद्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान पाकर तुरंत परम शान्ति हो पाता है। अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। जो अज्ञानी और श्रद्धारहित होकर संशयवान है, उसका नाश होता है। संशयवान के लिए न तो यह लोक है, न परलोक। उसे कहीं सुख नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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