गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप। हे परंतप! द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक अच्छा है, क्योंकि हे पार्थ! कर्म मात्र ज्ञान में ही पराकाष्ठा को पहुँचते हैं। टिप्पणी- परोपकार-वृति से दिया हुआ द्रव्य भी यदि ज्ञानपूर्वक न दिया गया हो तो बहुत बार हानि करता है, यह कितने अनुभव नहीं किया है? अच्छी वृत्ति से होने वाले सब कर्म तभी शोभा देते हैं जब उनके साथ ज्ञान का मेल हो। इसलिए कर्ममात्र पूर्णाहुति तो ज्ञान में ही है। तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। इसे तू तत्व को जानने वाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रतापूर्वक विवेक सहित बारम्बार प्रश्न करके जानना। वे तेरी जिज्ञासा तृप्त करेंगे। टिप्पणी- ज्ञान प्राप्त करने की तीन शर्ते- प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा इस युग में खूब ध्यान में रखने योग्य हैं। प्रणिपात अर्थात नम्रता विवेक, परिप्रश्न अर्थात बारम्बार पूछना, सेवारहित नम्रता खुशामद में शुमार हो सकती है। फिर, ज्ञान खोज के बिना संभव नहीं है, इसलिए जब तक समझ में न आवे तब तक शिष्य का गुरु से नम्रतापूर्वक प्रश्न पूछते रहना जिज्ञासा की निशानी है। इसमें श्रद्धा की आवश्यकता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती उसकी ओर हार्दिक नम्रता नहीं होती, उसकी सेवा तो हो ही कहाँ से सकती है ? यज्ज्ञात्वा न पुनमर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। यह ज्ञान पाने के बाद, हे पांडव! तुझे फिर ऐसा मोह न होगा। इस ज्ञान के द्वारा तू भूतमात्र को आत्मा में और मुझमें देखेगा। टिप्पणी-ʻयथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे̕ का यही अर्थ है। जिसे आत्मदर्शन हो गया है वह अपनी और दूसरे की आत्मा में भेद नहीं देखता। अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:। तू समस्त पापियों में बडे़-से-बडे़ पापी होने पर भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सब पापों को पार कर जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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