गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग
इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिस पर वैदिक ऋषि तो आधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी। अब उत्तर काल में मानव, विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्थान होगा।
उत्तर काल के हम लोग उस विकासोन्नति के नवीन युग के पुराभाग में उपस्थित है जिसकी परिणिति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होने वाली है। हमारा यह काम नहीं है कि वेदांत के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा ही चहारदीवारी के अंदर ही अपने-आपको बंद कर लें। ऐसा करना अपने-आपको एक सीमा में बांध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा। हम भावी सूर्य की संतान हैं, बीती हुई ऊषा की नहीं। नवीन साधन-सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अंदर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्त संसार के महान आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनर्जीवित अभिप्राय को नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्वरूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल करना रखना होगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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