गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 24.गीता का संदेश
प्रत्येक मनुष्य का अपना स्वधर्म होता है, अर्थात उसकी अंतःसत्ता का एक विधान होता है जिसका उसे पालन करना चाहिये, अनुसंधान और अनुसरण करना चाहिये। उसकी आभ्यंतरिक प्रकृति के द्वारा निर्धारित कर्म ही उसका वास्तविक धर्म है। उसके अनुसार चलना ही उसके विकास का सच्चा नियम है; उससे च्युत होने का मतलब है संकर गतिरोध और प्रमाद को उत्पन्न करना। उसके लिये सदा ही वही समाजिक, नैतिक धार्मिक या कोई अन्य विधान एवं आदर्श सर्वश्रेष्ठ है जो उसे स्वधर्म का पालन और अनुसरण करने में सहायता पहुँचाये। तथापि यह समस्त कर्म अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में भी मन के अज्ञान और त्रिगुण के खेल के अधीन है। जब मनुष्य अपनी अंतरात्मा को पा लेता है केवल तभी वह अज्ञान को तथा गुणों के संकर को पार कर सकता तथा अपनी चेतना मे से मिटा सकता है। यह सच है कि जब तुम अपने-आपको प्राप्त कर लोगे तथा अपनी आत्मा में निवास करने लोगोगे, तब भी तुम्हारी प्रकृति अपनी पुरानी लीक पर ही चलती रहेगी और कुछ काल तक अपने निम्नतर गुणों के अनुसार ही कार्य करेगी। परंतु तब तुम उस कर्म का अनुष्ठान पूर्ण आत्म-ज्ञान के साथ् कर सकोगें। और उसे अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति एक यज्ञ के रूप मे परिणत कर सकोगे। अतएव अपने स्वधर्म के विधान का पालन करो, तुम्हारा स्वभाव तुमसे जिस कर्म की मांग करे वही तुम करो, वह फिर चाहे कोई भी क्यों न हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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