गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 24.गीता का संदेश
अपने बाह्य रूप में जगत का सत्य केवल वही है जिसे हम प्रकृति कहते हैं, प्रकृति वह शक्ति है जो सत्ता के संपूर्ण नियम एवं यंत्र के रूप में कार्य करती है, हमारे मन और इन्द्रियों के विषयभूत इंस जगत् की रचना करती है और साथ ही जिस बाह्य जगत् में जीव निवास करता है उसके साथ जीव का संपर्क स्थापित करने के साधन के रूप में मन और इन्द्रियों की भी सृष्टि करती है। इस बाह्य दृश्यमान जगत् मे अपनी अंतरात्मा, मन, प्राण और शरीर को लिये हुए मनुष्य प्रकृति का एक प्राणी प्रतीत होता है, अपने शरीर, प्राण एवं मन के पार्थक्य के कारण और विशेषकर अपनी अहं बुद्धि के कारण ही वह दूसरों से भिन्न है- अहंबुद्धि का यह सूक्ष्म यंत्र उसके लिये इस कारण रचा गया है कि वह इस समस्त तीव्र पार्थक्य एवं विभेद-संबंधी अपनी चेतना को संपुष्ट और केंद्रीभूत कर सके। यह अत्यंत स्पष्ट है कि उसके प्राण एवं शरीर का व्यापार उसके स्वधर्म के द्वारा निर्धारित होता है, इसके घेरे से बाहर नहीं निकल सकता, किसी अन्य प्रकार से क्रिया नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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