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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
18.त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म
सत् का अर्थ शुभ भी है और वस्तु-सत्ता भी। ये दोनों चीजें, शुभ का तत्त्व और वस्तु-सत्ता का तत्त्व इन तीनों प्रकार के कर्मों के पीछे अवश्य होने चाहिये। सभी शुभ कर्म सत् हैं क्योंकि वे जीव को हमारी सत्ता के उच्चतर सत्स्वरूप के लिये तैयार करते हैं; यज्ञ, दान और तप मे दृढ़ निष्ठा, और उस प्रधान लक्ष्य को दृष्टि में रखकर यज्ञ,दान और तप के रूप में किये गये समस्त कर्म सत् हैं, क्योंकि वे हमारी आत्मा के उच्चतम सत्य के लिये आधार निर्मित करते हैं। और क्योंकि श्रद्धा हमारी आत्मा सत्ता का केद्रीय तत्त्व है, इनमें से कोई चीज यदि बिना श्रद्धा के की जाये तो वह मिथ्या होती है इहलोक में या परतर लोकों में उसका कोई सत्य अर्थ या सत्य सार नहीं होता, इह-जीवन में या मर्त्य जीवन के पश्चात् हमारी चिन्मय आत्मा के महत्तर लोकों में टिके रहने या सृजन करने के लिये उसमें कोई सत्य या शक्ति नहीं होती। अंतरात्मा की श्रद्धा-कोरा बौद्धिक विश्वास नहीं बल्कि जानने, देखने, विश्वास करने तथा अपनी दृष्टि और ज्ञान के अनुसार कर्म करने तथा अपने को गढ़ने के लिये अंतरात्मा का एकाग्र संकल्प ही अपनी शक्ति के द्वारा हमारे विकास की संभावनाओं का मान निर्धारित करता है, और जब यह श्रद्धा एवं संकल्प-हमारी संपूर्ण बाह्मांतर सत्ता प्रकृति और कर्म सहित-उस सबकी ओर मुड़ जायेगा जो उच्चतम, दिव्यतम, सत्यतम और शाश्वत है, तो यही हमें परम सिद्धि की प्राप्ति में भी समर्थ बना देगा।
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