गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 16.आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता
अब हम जरा यह देखें कि अर्जुन की कठिनाई और इंकार के मूल में जो समस्या है उसके दृष्टिकोण से तथा अत्यंत स्पष्ट और निश्चयात्मक शब्दों में इस समाधान का क्या अभिप्राय हैं एक मनुष्य तथा सामाजिक प्राणी के रूप में उसका कर्तव्य क्षत्रिय के उच्च धर्म का पालन करना है जिसके बिना पाप, अत्याचार और अन्याय के अराजकतापूर्ण बलात्कार के विरुद्ध समाज के ढ़ांचे की रक्षा नहीं की जा सकती, जाति के आदर्शों का औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता, सत्य और न्याय की सुसमंजस व्यवस्थ को धारण नहीं किया जा सकता। और फिर भी कर्तव्य का आहृान अपने-आप में युद्ध के नायक को अब पहले की तरह संतुष्ट नहीं कर सकता क्योंकि कुरुक्षेत्र की भीषण यथार्थता के बीच वह आह्वान अति कठोर, विमूढ़कारी और द्विविधापूर्ण रूप में उपस्थित होता है। अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन उसके लिये सहसा ही इस अर्थ का द्योतक हो गया है कि वह अपरिमित पाप तथा दुःख-कष्टरूपी परिणाम के लिये अपनी सहमति दे; सामाजिक व्यवस्था और न्याय की रक्षा का परंपरागत साधन उल्टे बड़ी भारी अव्यवस्था और संकट की ओर ले जाता प्रतीत होता है। न्यायसंगत दावे तथा स्वार्थ का नियम भी, जिसे हम न्याय अधिकार कहते हैं, वहाँ उसकी कोई सहायता नहीं करेगा; कारण, यद्यपि यह सही है कि जो राज्य उसे अपने लिये, अपने बधु-बांधवों तथा युद्ध में अपने पक्ष के लोगों के लिये जीतना है उस पर वास्तव में न्यायपूर्वक उन्हीं का अधिकार है तथा उस अधिकार की बलपूर्वक स्थापना करने का अर्थ आसुरी अत्याचार का उन्मूलन और न्याय का प्रतिष्ठापन करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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