गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष
अपनी अविचल स्वप्रतिष्ठ सत्ता की समता में भगवत्स्वरूप होता हुआ तथा समता में सब पदार्थों प्राणियों के साथ एकमय होता हुआ निःसीम समता तथा गंभीर एकत्व को अपने मन, हृदय, प्राण और शरीर के अंदर उतार लाता है और उसकी नींव पर दिव्य प्रेम, दिव्य कर्म एवं दिव्य ज्ञान के त्रैत को अविभाज्य एवं समग्र रूप में स्थापित करता है। गीता का मोक्ष-मार्ग यही है और आखिर क्या यही वह सच्चा अद्वैत नहीं है, जो एकमेव सनातन सत में लेश मात्र भी भेद नहीं करता? यह चरम-परम, भेदशून्य अद्धैतवाद एक को प्रकृति की बहुताओं में भी एक ही देखता है, यह उसे सब पहलुओं में एक ही देखता है, आत्मा तथा जगत के सत्स्वरूप में भी वह उसे उतना ही एक देखता है जितना कि विश्वातीत के उस महत्तम सत्स्वरूप में जो आत्मा का मूल तथा जगत का सत्य है और जो न तो विश्व-संभूति की किसी प्रकार की सत्यता से बंधा है और न उसकी असत्यता से और न ही चरम-परम शून्यता से। कम-से-कम गीता का अद्वैत तो यही है। भगवान गुरु अर्जुन से कहते हैं कि यह परम गुह्य शास्त्र है; यह परम ज्ञान और विज्ञान है जो हमें सत्ता के उच्चतम रहस्य के अंतस्तल में ले जाता है। इसे पूर्ण रूप से जानते और ज्ञान, संवेदन, शक्ति एवं अनुभूति में इसे अधिकृत करने का अर्थ है-रूपांतरित बुद्धि में पूर्ण बनना, हृदय में दिव्य तृप्ति लाभ करना तथा समस्त संकल्प एवं कर्म-कलाप के परम प्रयोजन और उद्देश्य में कृतकृत्य होना। अमर, दिव्य पराप्रकृति की ओर ऊपर उठने तथा शाश्वत धर्म को धारण करने का यही मार्ग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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