गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
भूतमात्र भगवत्सत्ता की ही अभिव्यक्ति है और हमारे अंदर जो सत्ता है वह सनातन आत्मा की ही अंश-आत्मा हैं इसमें संदेह नहीं कि हम निम्नतर जड़ प्रकृति में आये हुए हैं और उसके प्रभाव के अधीन हैं, पर यहाँ हम आये हैं उस परम आध्यात्मिक प्रकृति से ही: यह अधस्तन अपूर्ण स्थिति हमारी प्रतीयमान सत्ता है, पर वह हमारी पारमार्थिक सत्ता। वे सनातन इस समस्त जगद्धयापर को अपनी ही आत्म-सृष्टि के रूप में प्रकट करते हैं। वे एक साथ इस विश्व के पिता और माता हैं अनंत विज्ञान-तत्त्व, महत् ब्रह्म ही वह योनि है जिसमें वे अपने आत्मा-सृजन का बीज डालते हैं। अधि-आत्मा(Over Soul) के रूप में वे बीज डालते हैं, जगज्जननी, प्रकृति-आत्मा,(Nature Soul), अपनी ही चेतन-ज्योति: पूरिपूर्ण चित्-शक्ति के रूप में वे अपने असीम पर आत्म-परिसीमक विज्ञान से ओत-प्रोत अपनी अनंत अपादान-सत्ता के अंदर उस बीज को ग्रहण करते हैं। इस आत्म-सर्जनकारी महत् के गर्भ में वे उस दिव्य बीज को ग्रहण करते हैं और फिर वहाँ आदि भावमय सृजन-क्रिया से उत्पन्न हुए सत्ता के मानसिक या भौतिक आकार के रूप में उसे विकसित करते हैं। जो कुछ भी हम यहाँ देखते हैं वह सब उस सजृन-क्रिया से ही उद्भूत होता है; पर जो कुछ यहाँ उत्पन्न होता है वह उन अजन्मा तथा अनंतम का केवल सांत भाव और रूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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