गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 404

Prev.png
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य


परंतु स्वयं जीव स्थिर बना रहता है और कुछ अंतराल के बाद उन तत्त्वों से बने एक नये शरीर में सृष्टिचक्र के अंदर उसी प्रकार फिर से जन्मों का आवर्त आरंभ करता है जिस प्रकार विराम और विश्राम के काल के पश्चात् विश्व-पुरुष युग-चक्रों का अपना अनंत आवर्त फिर से आरंभ करते हैं। काल के चक्रों के भीतर इस प्रकार की अमरता सब देहधारी आत्माओं का एक सर्वसामान्य धर्म है। अधिक गंभीर अर्थ में अमर होना मृत्यु के बाद के इस अस्तित्व तथा इस अनवरत पुनरावर्तन से भिन्न कोई और ही वस्तु है। अमरता वह परा-स्थिति है जिसमें आत्मा को यह ज्ञान होता है कि वह जन्म और मृत्यु से परे हैं, अपनी अभिव्यक्ति की प्रकृति से परिसीमित नहीं है, अनंत एवं अविनाशी है, निर्विकार रूप से सनातन है,-अमर है, क्योंकि जन्म न लेने के कारण वह कभी मरती भी नहीं। पुरुषोत्तम भगवान्, जो परमेश्वर और परब्रह्म हैं, इस अमर सनातनता से नित्य युक्त हैं और कोई देह ग्रहण करने या वैश्व रूपों एवं शक्तियों को सतत धारण करने से प्रभावित नहीं होते, क्योंकि वे सदा इस आत्म-ज्ञान में प्रतिष्ठित रहते हैं। उनकी निज प्रकृति ही है अपनी सनातनता से नित्य सचेतन रहना; उनकी जो आत्म-संवित् है उसका कोई आदि नहीं, अनंत नहीं।

वे यहाँ घट-घटवासी हैं, पर प्रत्येक घट में वे अजन्मा के रूप में ही विद्यमान हैं, इस प्राकट्य के द्वारा वे अपनी चेतना में परिच्छिन्न नहीं होते, जिस भौतिक प्रकृति को वे धारण करते हैं उससे तद्रूप नहीं हो जाते; क्योंकि वह तो उनकी सत्ता के लीलामय जगद्-व्यापार की एक गौण घटना मात्र है। पुरुषोत्तम की इस नित्य-सचेतन सनातन सत्ता में निवास करना ही मुक्ति एवं अमरता है।१ परंतु यहाँ इस महत्तर आध्यात्मिक अमरत्व तक पहुँचने के लिये देहधारी जीव को अपरा प्रकृति के नियम के अनुसार निवास करना छोड़ देना होगा; उसे भगवान् की परम जीवनधारा का विधान अपनाना होगा, जो वस्तुतः उसकी अपनी सनातन सारभूत सत्ता का वास्तविक विधान हैं अपनी गुप्त मूल सत्ता के समान ही अपने भूतभाव के आध्यात्मिक विकास में भी उसे भगवान् के समान धर्मवाला बनना होगा। और यह महान् कार्य, मानव-प्रकृति से दैवी प्रकृति में यह आरोहण हम ईश्वरोन्मुख ज्ञान, संकल्प और उपासनारूपी पुरुषार्थ के द्वारा ही संपन्न कर सकते हैं। कारण, परम देव के द्वारा अपने सनातन अंश के रूप में भेजा हुआ जीव विश्व-प्रकृति के व्यापारों में [1] उनका अमर प्रतिनिधि होता हुआ भी उन व्यापारों के स्वरूप के कारण अपनी बाह्य चेतना में अपने-आपको प्रकृति की सीमाकारी अवस्थाओं के साथ उन मन, प्राण और शरीर के साथ तदाकार करने के लिये विवश हो जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ध्यान में रहे कि गीता में कहीं भी इस बात का कोई संकेत नहीं है कि व्यष्टिभूत आध्यात्मिक सत्ता का अव्यक्त, अनिर्देश्य, या परब्रह्म में लय होना ही अमरता का सच्चा अर्थ या उसकी सच्ची स्थिति है या योग का वास्तविक लक्ष्य है।बल्कि आगे चलकर वह कहती है कि अमरता ईश्वर के अंदर उनके परम धाम में निवास करना है, परं धाम और यहाँ वह कहती है कि अमरता साधमर्य या परा सिद्धि है, अर्थात् अमरता का अभिप्राय है अपनी सत्ता और प्रकृति के धर्म में पुरुषोत्तम के समान धर्मवाला होना, किंतु फिर भी अस्तित्व में बने रहना तथा विश्व-प्रवाह से सचेतन होते हुए भी उसे उपर उठे रहना, जैसे सब मुनि अभी भी रहते हैं, वे सृष्टिकाल में जन्म के अधीन नहीं होते, युगचक्रों के प्रलय के काल में व्यथित नहीं होते।

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः