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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
इन विषयों पर गीता के जो विचार हैं उनका सार, उसकी विचारधारा के चरम विकास को पहले से ध्यान में रखते हुए एक हदतक स्पष्ट किया जा चुका है; परंतु उसी की शैली का अनुसरण करते हुए, हम उसकी वर्तमान विवेचना के और बिंदु से उसका पुनः निरूपण कर दें। कर्म को स्वीकार कर लेने पर, जगत् में भगवद्-इच्छा के यंत्र के रूप में आत्मज्ञान के साथ किये जाने वाले दिव्य कर्म को ब्राह्यी स्थिति के साथ पूर्णतः संगत और ईश्वरोन्मुख गति का अनिवार्य अंग मान लेने पर, उस कर्म को ‘परम’ के प्रति भक्तिपूर्ण यज्ञ के रूप में आंतरिक तौर पर ऊंचा उठा ले जाने पर, यह मार्ग आध्यात्मिक जीवन के महान् लक्ष्य अर्थात् निम्नतर प्रकृति से उच्चतर प्रकृति में तथा मर्त्य सत्ता से अमर सत्ता उठने के महान् लक्ष्य पर क्रियात्मक रूप से कैसा प्रभाव डालता है? समस्त जीवन, समस्त कर्म अंतरात्मा और प्रकृति के बीच चलने वाला व्यापार है। उस व्यापार का मूल स्वरूप क्या है? अपने आध्यात्मिक शिखर पर उसका स्वरूप क्या हो जाता है? जो जीव अपने बाह्य तथा निम्नतर प्रेरक भावों से मुक्त होकर आंतरिक तौर पर परमात्मा की निज उच्चतम स्थिति में तथा उसकी विश्वगत शक्ति की गभीरतम कर्म-संबंधी प्रेरणा में अभिवर्धित हो जाता है उसे वह किस पूर्णता की ओर ले जाता है? ये अंतभूत प्रश्न हैं और इनका उत्तर वेदांत, सांख्य एवं योग के जगद्-विषयक विचारों के विशाल समन्वय से, जो गीता की संपूर्ण चिंतनधारा का आरम्भ-बिंदु है, ग्रहण किये गये समाधान के आशय में दे दिया गया है।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रश्न भी हैं जिन्हें गीता नहीं उठाती या जिनका वह उत्तर नहीं देती, क्योंकि वे उस युग के मानव-मन के सम्मुख अत्यावश्यक रूप में उपस्थित नहीं थे। जो जीवात्म यहाँ प्रकृति के अंदर देहधारी रूप में प्रकट होता है वह अपनी सत्ता का तीन रूपों में अनुभव करता है। सर्वप्रथम, वह अपने को एक ऐसी आध्यात्मिक सत्ता अनुभव करता है जो आपाततः अज्ञान के द्वारा प्रकृति के बाह्य व्यापारों के अधीन है और प्रकृति की गतिशीलता के भीतर एक कार्यकारी, विचारशील एवं क्षर व्यक्तित्व और प्राकृत जीव तथा अहं के रूप में प्रकटित है। इसके आगे जब वह इस समस्त कर्म और गति के पीछे हटता है तो वह पाता है कि उसका उच्चतर सत्स्वरूप वह सनातन तथा निर्व्यक्तिक आत्मा एवं अक्षर आत्मसत्ता है जो कर्म और गति को अपनी उपस्थिति के द्वारा धारण करने तथा एक अविचल, समत्व-युक्त साक्षी की भाँति उसे देखने के सिवा उसमें और कोई भाग नहीं लेती।
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