गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
गीता की भाषा में ‘धर्म’ का अर्थ है सत्ता तथा उसके कर्मो का स्वाभाविक विधान तथा आंतरिक प्रकृति से निःसृत और उसके द्वारा निर्धारित कर्म, मन, प्राण और शरीर की निम्नतर अज्ञ चेतना में अनेक धर्म, अनेक नियम, अनेक मानदंड तथा विधान हैं, क्योंकि मानसिक, प्राणियों तथा भौतिक प्रकृति के अनेक विभिन्न निर्धारण तथा प्रकार हैं। अमर धर्म एक ही हैं; वह सर्वोच्च आध्यात्मिक दिव्य चेतना तथा उसकी शक्तियों का, परा प्रकृतिः का धर्म है। वह त्रिगुण से परे हैं, और उसतक पहुँचने के लिये इन सब निम्नतर धर्मों का परित्याग करना होगा। उनके स्थान पर सनातन की अखंड, मोक्षप्रद एकीकारक चेतना तथा शक्ति को ही हमें अपने कर्म का अनंत अद्गम, उसका सांचा, निर्धारक तथा आदर्श बनाना होगा। अपने निम्नतर वैयक्तिक अहंभाव से ऊपर उठना, निर्विकार सनातन सर्वव्यापी अक्षर पुरुष की निवैंयक्तिक और सम-स्थिरता में प्रवेश करना और फिर उस स्थिरता से, अपनी समस्त सतता और प्रकृति के पूर्ण आत्मसर्पण के द्वारा, उस पूर्ण स्थिरता के लिये अभीप्सा करना जो अक्षर से इतर और उच्चतर है-यह इस योग की पहली आवश्यकता है। इस अभीप्सा के बल पर मुनष्य अमर धर्म की ओर उठा सकता है। वहाँ परमतम ‘उत्तम पुरुष’ के साथ सत्ता, चेतना और दिव्य आनंद में एक होकर, उनकी परमोच्च क्रियाशील प्रकृति-शक्ति के साथ एक होकर मुक्त आत्मा उच्चतम अमरत्व तथा पूर्ण स्वातंत्र्य को वास्तविक शक्ति के साथ अनंत ज्ञान प्राप्त कर सकती है, असीम प्रेम तथा निभा्रत कार्य कर सकती है। शेष गीता इस अमर धर्म पर अधिक पूर्ण प्रकाश डालने के लिये ही लिखी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.29
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