गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
और, फिर, वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो न तो प्रिय-वस्तु की आकांक्षा करेगा तथा उसके स्पर्श से पुलकित होगा और न ही अप्रिय वस्तु से घृणा करेगा तथा उसके बोझ से दुःखित होगा। वह शुभ और अशुभ घटनाओं के भेद को मिटा चुका है, क्योंकि उसकी भक्ति सभी वस्तुओं को अपने सनातन प्रेमी और प्रभु के हाथों से प्राप्त अच्छी वस्तुएं समझती हुई समान भाव से उनका स्वागत करती है। ईश्वर का प्रिय ईश्वर-प्रेमी विशाल समत्व से युक्त आत्मा होता है जो मित्र और शत्रु के प्रति सम और रखता है, मान-अपमान, सुख-दुःख, निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक एवं शक्ति-उष्ण तथा उन सब चीजों के प्रति सम होता है जो समान्य प्रकृति को विरोधी भावों से व्यथित करती है। वह किसी भी व्यक्ति या वस्तु, स्थान या घर के प्रति आसिक्त नहीं रखेगा; चाहे किन्हीं भी परिस्थितियों से, ऐसे किसी भी संबंध से जो कि मनुष्य उसके साथ स्थापित करें, किसी भी स्थिति या भाग्य से वह संतुष्ट और तृप्त रहेगा। उसका मन सभी विषयों में स्थिर भाव धारण करेगा, क्योंकि वह (मन) नित्य-निरंतर उच्चतम आत्मा में अवस्थित तथा सदैव अपने प्रेम और अराधन एक अनन्य दिव्य पात्र में समाहित रहेगा समता, निष्कामता, निम्नतर अहंमय प्रकृति तथा उसके दावों से मुक्ति सदा ही वह एकमात्र पूर्ण आधार है जिसकी गीता महान् मोक्ष के लिये मांग करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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