गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
तब भला, जिस भक्त ने इस मार्ग का अनुसरण किया है और सनातन की उपासना की ओर मुडा़ है, उसकी दिव्य प्रकृति क्या होगी? गीता कई-एक श्लाकों में बदल-बदलकर अनेक प्रकार से अपनी पहली आग्रहपूर्ण मांग को, समता, निष्कामता और आत्मा के स्वातंत्र्य की मांग को गुंजारित करती है। इसे तो आधार के रूप में सदा ही रहना होगा,-और इसीलिये इसपर आरंभ में इतना अधिक बल दिया गया था। और, उस समता में भक्ति, अर्थात् पुरुषोत्तम से प्रेम और उनकी आराधना के द्वारा आत्मा को किसी महत्तम एवं उच्चतम पूर्णता की ओर उठाना होगा जिसका यह स्थिर समता विशाल आधार होगी। इस आधरभूत सम चेतना के कई सूत्र यहाँ बताये गये हैं। सर्वप्रथम, अहंभव का, अहंता और समता का अभाव, निर्ममो निरंहकार:। पुरुषोत्तम का भक्त वह है जिसका ऐसा विशाल मन और हृदय है जिसने अहं की सब तंग दीवारों को तोड़ डाला है। सार्वभौम प्रेम उसके हृदय में निवास करता है, उसके अंतर से एक विश्वव्यापी करुणा का समुद्र चतुर्दिक् उमड़ा पड़ता है। वह सर्वभूतों के प्रति मैत्री और करुणा का भाव धारण करेगा तथा किसी भी प्राणी से घृणा नहीं करेगा; क्योंकि वह धैर्यवान्, चिन-सहिष्णु, तितिक्षु और क्षमा का निर्झर होता है। निष्काम संतोष, सुख-दुःख तथा हर्ष-शोक के प्रति शांत समता, दृढ़ आत्म-संयम, योगी का अचल-अटल संकल्प एवं दृढ़ निश्चय और संपूर्ण मन-बुद्धि को ईश्वर के प्रति, उसकी चेतना और ज्ञान के स्वामी के प्रति अर्पित करने वाला प्रेम और भक्ति-ये सब उसकी संपदाएं होती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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