गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
परंतु हो सकता है कि ईश्वर का यह अविच्छिन्न स्मरण तथा अपने कार्यो को उनकी ओर ऊपर उठा ले जाना भी सीमित मन की सामर्थ्य से की वस्तु प्रतीत हो, क्योंकि मन अपनी आत्म-विस्मृति की अवस्था में कार्य तथा उसके बाह्य उद्देश्य की ओर मुड़ जाता है और तब उसे भीतर देखना तथा हमारी प्रत्येक चेष्टा को आत्मा की दिव्य वेदी उत्सर्ग करना स्मरण करना स्मरण नहीं रहता। ऐसी दशा में उपाय यह है कि कर्म में निम्नतर ‘स्व’ को संयमित करके फल की कामना के बिना कर्म किये जायें। समस्त फल का त्याग करना होगा, उसे कर्म का संचालन करने वाली शक्ति पर उत्सर्ग कर देना होगा और फिर भी, वह शक्ति हमारी प्रवृत्ति पर जिस कार्य को आरोपित करे उसे करना ही होगा। क्योंकि, इस साधन के द्वारा बाधा निरंतर घटती जाती है और आसानी से दूर हो जाती है, मन को ईश्वर का स्मरण करने तथा भगवच्चेतना के स्वातंत्र्य पर अपने को एकाग्र करने का अवकाश प्राप्त हो जाता है। यहाँ गीता क्षमताओं की एक चढ़ती हुई श्रृंखला का प्रतिपादन करती है और निष्काम कर्मो के इस योग को सर्वोच्च महत्त्व प्रदान करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज