गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
उसमें आत्मा की मुक्त प्रकृति का दिव्य प्रकृति के साथ तादात्म्य, अर्थात् साद्श्य मुक्ति है,-क्योंकि मुक्त आत्मा की पूर्णता है भगवान् के समान ही बन जाना, मद्भावमागत:, और अपनी सत्ता के विधान एवं अपने कर्म तथा प्रकृति के नियम में उनके साथ एक हो जाना साधर्म्यमागत:। पुराणपंथी ज्ञानयोग का लक्ष्य एकमेव अनंत सत् में अगाध लय अर्थात् सायुज्य है; वह केवल उसीको संपूर्ण मोक्ष समझता है। भक्तियोग नित्य निवास या समीप्य, सालोक्य, सामीप्य, को ही महत्तर मोक्ष के रूप में देखता है। कर्मयोग सत्ता तथा प्रकृति की शक्ति में, स्वभाव एवं स्वधर्म में एकत्व, सादृश्य की ओर ले जाता है: पर गीता अपनी उदार समग्रता में इन सबको समा लेती है और सभी को एक महत्तम एवं समृद्धतम दिव्य स्वतंत्रता तथा पूर्णता में एकीभूत कर देती है। इस भेद के विषय में अर्जुन से ही प्रश्न करवाया जाता है यह स्मरण रखना होगा कि निर्गुण अक्षर पुरुष तथा उन परमात्मा के बीच विभेद जो एक साथ निवैंयक्तिक सत् भी हैं और दिव्य व्यक्ति भी और इन दोनों से अधिक भी बहुत कुछ हैं,-यह महत्त्वपूर्ण विभेद, जो पीछे के अध्यायों में तथा उस दिव्य ‘‘अहम् ” में सूचित किया गया है जिसका कृष्ण अहम्, माम शब्दों द्वारा बारम्बार उल्लेख कर चुके हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज