गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन
एक परम चैतन्य है जिसके द्वारा परात्पर की महिमा में प्रवेश करना तथा उनके अंदर अक्षर आत्मा और समस्त क्षर भाव को धारण करना संभव है,-सबके साथ एकीभूत और फिर भी सबसे ऊपर होना, जगत् को अतिक्रांत का जाना और फिर भी विश्वगत ईश्वर तथा विश्वातीत ईश्वर दोनों की संपूर्ण प्रकृति का एक साथ आलिंगन करना संभव है। निश्चय ही अपने मन और शरीर की कारा में बद्ध सीमित मनुष्य के लिये ऐसा करना कठिन हैः किंतु, भगवान् कहते हैं “ मेरे कर्मों को करने वाला मन, मुझे परम पुरुष तथा परम विषय स्वीकर कर, मेरा भक्त बन, आसिक्ति से मुक्त और सर्वभूतों के प्रति निवैंर हो जा; क्योंकि ऐसा मनुष्य ही मुझे प्राप्त करता है।”[1] दूसरे शब्दों में, निम्न प्रकृति से ऊपर उठना, प्राणिमात्र से एकता, विश्वव्यापी ईश्वर तथा परात्पर भाव के साथ एकत्व, कर्मो में हमारी इच्छा का भगवान् की इच्छा के साथ एकत्व, एकमेव के लिये तथा सर्वगत ईश्वर के लिये परम प्रेम,-यही उस चरम-परम आध्यात्मिक स्व-अतिक्रमण तथा उस अकल्पनीय रूपांतर का मार्ग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.55
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