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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन
इस परिणति से परे सनातन के लिये हुए चरम रूपांतों के साथ एक और भी आश्चर्यमय एकत्व तथा उनमें अंतर्निवास है। अर्जुन की प्रार्थना के उत्तर में परमेश्वर अपना सामान्य नारायण-रूप, प्रमाद, प्रेम, माधुर्य और सौन्दर्य से संपन्न अभीष्ट रूप पुनः धारण करते हैं, परंतु, उससे पहले वे उस दूसरे शक्तिशाली रूप की, जिसे वे छिपाने वाले ही हैं, अमित महिमा उद्घोषित करते हैं। वे उसे बताते हैं कि ‘‘यह रूप जो तू अब देख रहा है मेरा परम रूप है, तेजोमय, आद्य विश्व रूप है जिसे मनुष्यों में तेरे सिवा और किसी ने अभीतक नहीं देखा। अपने आत्म-ज्ञान से मैंने तुझे यह दिखाया है। क्योंकि, यह मेरी वास्तविक आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता का रूप है, यह जागतिक सत्ता के रूप में मूर्तिमंत साक्षात् पुरुषोत्तम ही हैं। मेरे साथ पूर्ण रूप से योगयुक्त आत्मा इसे स्नायविक अंगों के किसी प्रकार के कंपन या मन के किसी भ्रम एवं व्यामोह के बिना देखती है, क्योंकि वह इसकी ब्रह्या आकृति में विद्यमान भीषण तथा अभिभूतकारी तत्त्व को ही नहीं बल्कि इसके उच्च तथा आवश्यक अर्थ को भी देखती है। और तुझे भी इसे उसी प्रकार बिना भय के, बिना मन के मूढ़भाव तथा इन्द्रिय आदि अवयवों के अवसाद के देखना चाहिये, पर, क्योंकि तेरी निम्नतर प्रकृति इसे उस उच्च साहस तथा शांति के साथ देखने के लिये अभी तैयार नहीं है, मैं तेरे लिये अपना वह नारायण-रूप पुनः धारण करूंगा जिसमें मानव मन सुहृद्भूत परमेश्वर की शांति, साहाय्य और आनंद को अमिश्रित तथा अपनी मानवता के अनुकूल मृदुल रूप में देखता है।
यह महत्तर रूप ‘‘-और ये शब्द इस रूप के अंतर्धान होने के बाद पुनः दुहराये गये हैं-‘‘केवल विरली उच्चतम आत्माओं के लिये ही है। स्वयं देवता भी नित्यप्रति इस रूप के दर्शन की आकांक्षा किया करते हैं। इसे मुनष्य वेद, तप, दान या यज्ञ के बल पर नहीं देख सकता, बल्कि इसे वह सब वस्तुओं में केवल मुझे ही देखने, पूजने और प्रेम करने वाली भक्ति के द्वारा देख एवं जान सकता है तथा इसके भीतर प्रवेश पा सकता है।”[1] तब भला इस रूप की वह अनुपम विशेषता क्या है जिसके कारण यह ज्ञान का विषय बनने से इतना ऊपर उठा हुआ है कि मानव-ज्ञान का सपूर्ण सामान्य प्रयास और यहांतक कि उसके आध्यात्मिक पुरुषार्थ का अंतरतम तप भी, बिना सहायता के, इसके दर्शन उपलब्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं है?
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