गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन
उस वस्तु की गंभीर अनुभूति ही हमें काली की घोर आकृति में मां की मुखछवि के दर्शन कराती है और यहांतक कि संहार के बीच में भी सर्वभूतसुहृत ही रक्षक बाहुओं, अनिष्ट के बीच भी एक शुद्ध निर्विकार दयालुता की उपस्थिति तथा मृत्यु के मध्य भी अमृतत्त्व के स्वामी का अनुभव कराती है। दिव्य कर्म के अधीश्वर के भय से राक्षस, अंधकार की भीषण दानवीय शक्तियां ध्वस्त, पराजित एवं पराभूत होकर भाग खड़ी होती हैं। परंतु सिद्ध, अर्थात् पूर्णत्व और सिद्धि को प्राप्त किये हुए लोग जो अविनाशी परमेश्वर के नामों को जानते तथा गाते हैं। तथा उनकी सतत् के सत्य में निवास करते हैं, उनके प्रत्येक रूप के सम्मुख शीश झुकाते हैं और जानते हैं कि प्रत्येक रूप किसकी प्रतिमा और प्रतीक है। अशुभ, अज्ञान, निशाचर तथा राक्षसी शक्तियां जो नष्ट करने योग्य हैं, उन्हें छोड़कर और किसी भी चीज से वास्तव में डरने की आवश्यकता नहीं। उग्रदेव रुद्र की समस्त गतिविधि और कार्य-प्रवत्ति का लक्ष्य संसिद्धि, दिव्य ज्योति और पूर्णता ही होता है। कारण, ये परमात्मा, ये भगवान् केवल बाह्य रूप में ही संहारक हैं, अर्थात् इन सब सांत रूपों को नष्ट करने वाले काल हैं; पर अपने-आपमें वे अनंत हैं, वैश्व देवताओं के ईश हैं, जिनके अंदर जगत् तथा उसके समस्त कर्म सुरक्षित रूप से अधिष्ठित हैं, वे आदि तथा सदा उत्पत्ति करने वाले स्रष्टा हैं, सृष्टिकारिणी शक्ति के उस रूप से अधिक महान् हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.41-46
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