गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
स्वयं अर्जुन भी एक विभूति है; वह अध्यात्मिक विकास में एक उच्चता-प्राप्त मनुष्य है, अपने सम-सामयिकों के समुदाय में एक विख्यात व्यक्ति, मानवजाति में विराजमान ईश्वर, भगवन्नारायण का चुना हुआ यंत्र है। एक स्थान पर भगवान् गुरु सबके परम तथा सम आत्मा के रूप में बोलते हुए घोषित करते हैं कि न कोई मेरा प्रिय है न द्वेष्य, पर अन्य स्थानों पर वे कहते हैं कि अर्जुन उनका प्रिय और भक्त है और इसलिये व उनके द्वारा परचिालित तथा उनके हाथों में सुरक्षित है, दिव्य दर्शन तथा ज्ञान के लिये चुना हुआ है। यहाँ असंगति केवल ऊपरी है। विश्व के आत्मा के रूप में वह शक्ति सबके प्रति सम है, अतएव प्रत्येक मनुष्य को वे उसकी प्रकृति के व्यापारों के लिये तदनुसार प्रदान करते हैं; किंतु पुरुषोत्तम का मनुष्य के साथ वैयक्तिक संबंध भी है जिसमें वे उस व्यक्ति के लिये विशेष रूप से निकट हैं जो उनके पास पहुँच गया है। ये सब शूरवीर और महारथी जो कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध में सम्मिलित हुए हैं भगवत्संकल्प के वाहन हैं और प्रत्येक के द्वारा वे उसी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं पर उसके अहं के पर्दे की ओट में ही। अर्जुन उस स्थल पर पहुँच गया है जहाँ आवरण को विदीर्ण किया जा सकता है तथा देहधारी भगवान अपनी विभूति के सम्मुख अपनी कार्यशैली का रहस्य प्रकाशित कर सकते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि सत्य का दर्शन कराना आवश्यक भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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