गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
मुक्त और विकृति और अपूर्णता पर अनुचित बल नहीं देती, बल्कि सबको, हृदय में पूर्ण प्रेम और उदारता, बुद्धि में पूर्ण समझ तथा आत्मा में पूर्ण समता रखते हुए, देखने में समर्थ होती है। अंत में, वह संभूति-संकल्प की प्रयासकारी शक्तियों के ईश्वर की ओर उर्ध्वामुख-संवेग को देखती है; शक्ति और गुण की सभी उच्च अभिव्यक्तियों को, देवत्व की जाज्वल्यमान जिहृाहो, निम्नतर प्रकृति के स्तरों से समुज्जवल प्रज्ञा और ज्ञान, महान् शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, साहस, वीरता, प्रेम और आत्म-दान के सदय माधुर्य, उत्साह और गौरव, उत्कृष्ट सद्गुण, श्रेष्ठ कर्म, मोहक सुषमा तथा समस्वरता, सुंदर तथा दिव्य सृजन के शिखरों की ओर ऊपर उठी हुई अपनी प्रखरताओं से युक्त आत्मा, मन और प्राण की आरोही महानताओं को वह सम्मानित, अभिनंदित और प्रोत्साहित करती है। आत्मिक चक्षु महान् विभूति के अंदर मनुष्य के उदीयमान देवत्व को देखता और उसे पहचान लेता है। उसका वह पहचानना परमेश्वर को शक्ति के रूप में पहचानना होता है, पर शक्ति यहाँ अपने व्यापकतम अर्थ में अभिप्रेत है, अर्थात् केवल बल-सामर्थ्य ही नहीं, बल्कि ज्ञान, संकल्प, प्रेम, कर्म पवित्रता, मधुरता तथा सुन्दरता की शक्ति के अर्थ में भी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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