गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
रजोगुण अर्थात् कर्म, कामना और अधिकार के गुण की प्रबलता होने पर संघर्ष तथा प्रयास देखने में आता है, शक्ति-सामर्थ्य का विकास होता है, परंतु यह (विकास) स्खलनशील, दुःखदायी तथा उग्र होता है; अशुद्ध धारणाओं, पद्धतियों तथा आदर्शों के कारण पथभ्रांत हो जाता है; ठीक धारणाओं, पद्धतियों या आदर्शों का दुरुपयोग करने, उन्हें बिगाड़ने तथा उल्टा कर देने की ओर प्रेरित होता है, और विशेषकर, अहंभाव के बहुत अधिक और प्रायः ही विराट् अतिरंजन की ओर प्रवृत्त होता है। सत्त्वगुण अर्थात् प्रकाश, संतुलन और शांति गुण की प्रबलता होने पर अधिक सामंजस्यपूर्ण कार्य और प्रकृति के साथ यथोचित व्यवहार होता है, पर वह व्यवहार वैयक्तिक ज्योति की तथा इस निम्नतर मानसिक संकल्प और ज्ञान के अधिक अच्छे रूपों का अतिक्रमण करने में असमर्थ शक्ति की सीमाओं के भीतर ही उचित होता है। इस उलझन से छुटकारा पाना, अज्ञान, अहंता और त्रिगुण से परे उठ जाना दिव्य पूर्णता की ओर पहला यथार्थ कदम है। ऐसे अतिक्रमण से ही जीव अपनी दिव्य प्रकृति तथा सच्ची सत्ता करता है। आध्यात्मिक चेतना में विद्यमान मुक्त ज्ञान-चक्षु जगत् पर और दृष्टिपात करते हुए केवल इस संघर्षशील निम्नतर प्रकृति को ही नहीं देखते हैं। यदि हम अपनी तथा दूसरों की प्रकृति के दृश्यमान बाह्य-तथ्य को ही देखते हैं तो आन की आंख से देखते हैं और सबमें, सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक प्राणी में, देव और दानव में, संत और पापी में, ज्ञानी और अज्ञनी में, बड़े और छोटे में, मनुष्य, पशु, वनस्पति तथा जड़ सत्ता में समान रूप से ईश्वर को नही जान सकते। मुक्त दृष्टि तो प्राकृतिक सत्ता के संपूर्ण गुह्य सत्य के रूप में एक साथ तीन वस्तुओं को देखती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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