गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
उसके गुण और शक्ति के सब अनंत प्रभेद ‘अनन्त-गुण, अगणन–शक्ति’ वहाँ इस परिपूर्ण प्रज्ञा, संकल्प, शक्ति, आनंद और प्रेम के ऐसे स्वतंत्र आत्म-रूपायन हैं जो अदभुत रूप से विविध हैं तथा सत्युत्य और सहज-स्वभाव रूप से सुसंगत हैं। वहाँ सब कुछ अनंतताओं की एक बहुमुखी अबाधित एकता है। आदर्शभूत दिव्य प्रकृति में प्रत्येक शक्ति एवं प्रत्येक गुण अपने कार्य में शुद्ध, पूर्ण, आत्म अधिकृत तथा समस्वर है; वहाँ कोई भी चीज अपनी पृथक सीमित स्वचरितार्थता के लिये चेष्ठा नहीं करती, सब एक अवर्णनीय एकत्व में कार्य करते हैं। वहाँ सब धर्म, सत्ता के सब विधान–धर्म, सत्ता का विधान, दिव्य शक्ति और गुण का, गुर्ण-कर्म का, केवल एक विशेष व्यापार है,-एक ही स्वतंत्र और नमनशील धर्म है। सत्ता की वह एकमात्र दिव्य शक्ति [1] अपरिमेय स्वतंत्रता के साथ कार्य करती है और, किसी एक ही ऐकांतिक नियम से न बंधी रहकर, किसी बांधने वाली प्रणाली से सीमित न रहते हुए, अनंतता की अपनी निजी क्रीड़ा में आनंद लेती है और आत्म-अभिव्यक्ति के अपने सदा-पूर्ण सत्य से कभी नहीं डगमगाती। परंतु जिस संसार में हम रहते हैं उसमें चुनाव और विभेदन का पृथक्कारी तत्त्व विद्यमान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तपस्, चित्-श्क्ति।
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