गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8.भगवान् और संभूति–शक्ति
यदि हम गुण और मात्रा के विभेदों से या मूल्यों के भेद तथा प्रकृत के विरोधों से अंध न होने वाली इस अंतदर्शन की आंख से वस्तुओं पर दृष्टिपात करें तो हम देखेंगे कि सभी वस्तुएं वास्तव में इस अभिव्यक्ति की शक्तियां हैं, इस विश्वव्यापी आत्मा तथा अध्यात्म-सत्ता की विभूतियां हैं, इस महान् योगी का योग, इस अद्भुत आत्मस्रष्टा की आत्म-सृष्टि हैं और इसके सिवा वे और कुछ हो ही नहीं सकतीं। वे इस विश्व में अपने अगणित भूतभावों के अज तथा सर्वव्यापक स्वामी हैं सभी पदार्थ उनकी आत्म-प्रकृति में उनकी शक्तियां तथा उनके संसिद्ध रूप, विभूतियां हैं। वे जो कुछ हैं उस सबका वे उद्गम हैं, उनका आदि हैं; उनकी नित्य-परिवर्तनशील अवस्था में वे उनका आधार, उनका मध्य हैं; वे ही उनका अंत भी है, प्रत्येक सृष्ट वस्तु की समाप्ति या विलय की अवस्था में वे ही उसका प्रवसान या विघटन हैं। वे उन्हें अपनी चेतना में से बाहर निकालते हैं और उनमें गुप्त रूप से अवस्थित रहते हैं और वही उन्हें अपनी चेतना में वापिस खींच सकते हैं जो फिर उनके अंदर कुछ समय या सदा के लिये अंतर्लीन रहते हैं। जो कुछ भी हमें दिखायी देता है वह एकमेव की विभूति के परिणामस्वरूप ही अगोचर होता है। सभी श्रेणियां, जातियां उपजातियों तथा व्यष्टि ऐसी ही विभूतियां हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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