गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 334

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


द्वन्द्वों से अनभिभूत, अपनी सृष्टि से अबद्व, प्रकृति से अतीत और फिर भी उसके साथ आंतरिक रूप से संबद्ध और उसके प्राणियों के साथ आत्यंतिक रूप से अभिन्न, वे, उनके आत्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, परमेश्वर, प्रेमी, सुहृत, आश्रय उन्हें उनके अंदर से और ऊपर से अज्ञान और दुःख, पाप और प्रमाद के इन मर्त्य दृश्यों के भीतर से ले जा रहे हैं, हर एक को अपनी-अपनी प्रकृति के और सभी को विश्व-प्रकृति के द्वारा ले जा रहे हैं किसी परा ज्योति, परम आनंद, परम अमृतत्त्व और परम पद की ओर। यही मुक्तिप्रद ज्ञान की पूर्णता है। यह ज्ञान है उन भगवान् का जो हमारे अंदर और जगत् के अंदर हैं और साथ ही परम अनंत-स्वरूप हैं। वे ही एकमात्र निरपेक्ष सत् हैं जो अपनी भागवती प्रकृति, आत्ममाया से यह सब कुछ हुए हैं और अपनी परा स्थिति में रहते हुए इस सबका शासन-नियमन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणी के अंदर अंतरात्मरूप से अवस्थित हैं और समस्त विश्व-घटनाओं के कारण, नियंता और चालक हैं और फिर भी इतने महान् शक्तिमान् और अनंत हैं कि अपनी सृष्टि से किसी प्रकार सीमित नहीं होते। ज्ञान का यह स्वरूप भगवान् की प्रतिज्ञा के तीन पृथक्-पृथक् श्लोकों द्वारा विशद हुआ है।

भगवान् कहते हैं, ‘‘जो कोई मुझे अज अनादि और सब लोकों और प्रजाओं का महान् ईश्वर जानता है, वह इन मर्त्य लोकों में रहता हुआ अविमोहित रहता और सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो कोई मेरी इस विभूति को ( सर्वव्यापक ईश्वरत्व को ) और मेरे इस योग को ( इस ऐश्वर योग को जिसके द्वारा परम पुरुष परमेश्वर सब भूतों से अधिक होने पर भी सबके साथ एक हैं और सबमें निवास करते हुए सबको अपनी ही प्रकृति के प्रादुर्भाव के रूप में अपने अंदर रखते हैं ) तत्त्वतः ( उसके तत्त्वों के साथ ) जानता है वह अविचलित योग के द्वारा मेरे साथ एकीभूत होता है। .... बुधजन मुझे सबका प्रभव जानते और यह जानते हैं कि मुझे भजते हैं ...... और मैं उन्हें वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मेरे पास आते हैं और मैं उनके लिये उस तम का नाश करता हूँ जो अज्ञान से उत्पन्न होता है। ” ये परिणाम निकलते ही हैं उस ज्ञान के स्वभाव से और उस योग के स्वभाव जो उस ज्ञान को आध्यात्मिक संवर्द्धन और आध्यात्मिक अनुभवों में परिणत करता है। क्योंकि मनुष्य की बुद्धि और कर्म की सारी पेरशानी, उसकी बुद्धि की सारी लुढ़क-पुढ़क, सशंकता और क्लेश, उसके मन की इच्छाशक्ति, उसके हृदय का न्यायनीतिधर्म की ओर फिरना, उसके मन, इन्द्रियों और प्राण के तकाजे, इन सबका मूल उसके सम्मोह में अर्थात् उसके इन्द्रियाच्छादित देहबद्ध अंतःकरण की स्वभावसुलभ टटोलने की क्रिया और तमसाच्छादित विषय-वेदना और वासनावृत्ति में मिल सकता है। पर जब वह सब पदार्थों के भागवत मूल को देखता है,जब वह स्थिर होकर विश्वदृश्य से उसके परे जो सत्स्वरूप है उसे देखता है और उस सत्स्वरूप से इस दृश्य को देखता है तब वह बुद्धि, मन, हृदय, और इन्द्रियां के इस सम्मोह से मुक्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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