गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
भावा: अर्थात् अंतःकरण की सारी अवस्थाएं और वृत्तियां उन्हीं की हैं, उन्हीं के सारे मानस-भाव हैं ये भी अर्थात् हमारे अतंःकरण की निम्न अवस्थाएं तथा उनके प्रकट दीखने वाले परिणाम, एवं, मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, ऊंची-से ऊंची आध्यात्मिक अवस्थाएं जिस प्रकार परम पुरुष से [1] उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार ये भी, उससे किसी परिणाम मं कम नहीं। जो कुछ स्वतःसिद्ध है ( अर्थात् आत्मा) और जो कुछ हुआ है ( अर्थात् भूत ) इन दोनों में जो भेद है वह गीता मानती है और उसकी ओर विशेष रूप से ध्यान दिलाती है पर इन दोनों में परस्पर-विरोध नहीं खड़ा करती। क्योंकि ऐसा करना विश्व के एकत्व को मिटा देना होगा। भगवान् अपनी परा स्थिति में एक हैं, पदार्थ मात्र को धारण करने वाले आत्मस्वरूप से एक हैं, अपनी विश्वप्रकृति के एकत्व में एक हैं। भगवान् की उस परा स्थिति में, उस एकमेवा-द्वितीय सत्ता में हमें, यदि हमें गीता के पीछे-पीछे चलना है तो, सब पदार्थों का परम निषेध या बाध नहीं बल्कि वह चीज ढूंढ़नी होंंगी जिससे उनके अस्तित्तव का रहस्य खुल जाये, उनकी सत्ता का वह रहस्य मालूम हो जाये जिससे सबकी संगति बैठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उपनिषद् कहती है, ‘‘आत्मा एव अभूत् अर्वभूतानि ” अर्थात् आत्मा ही सब भूत ( प्राणी और पदार्थ ) हुआ है; शब्द योजना में ऐ खूबी, एक विशेष अर्थगौरव है-आत्म अर्थात् जो स्वतःसिद्ध है वही हुआ है वह सब कुछ हुआ है, ‘भूतानि’।
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