गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
पर ऐसा करते हुए यह ज्ञान इन दोनों में से किसी को भी असत् नहीं ठहराता, न किसी के भी सत्स्वरूप से कोई चीज निकाल लेता है; प्रत्युत यह सारा विश्व ही ईश्वर है अथवा इस इस विश्व का कोई विश्वातीत ईश्वर है या जो कोई परम तत्त्व हमारे आध्यात्मिक ध्यान में या आत्मानुभूति में आते हैं, उन सब का इस ज्ञान में सामंजस्य हो जाता है। भगवान् अज अविनाशी अनतं आत्मा हैं जिनका कोई आदि नहीं; काई ऐसी चीज न है, न हो सकती है जिसमें से वे निकले हों, क्योंकि वे एक हैं, कालातीत हैं, निरपेक्ष हैं। “मेरा जन्म न देवता जानते हैं न महर्षि ही ..... जो मुझे अज अनादि जानता है” [2] इत्यादि इस परम वचन के उपोद्घात हैं, और यह परम वचन यह आश्वासन देता है कि यह ज्ञान सीमित करने वाला अथवा बौद्धिक ज्ञान नहीं है, क्योंकि उस परम पुरुष का रूप और स्वभाव, उसका स्वरूप,-यदि उसके लिये इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता हो,-मन के द्वारा चिंत्य नहीं हैं, बल्कि यह विशुद्ध आत्मानुभूत ज्ञान है और यह मर्त्य मनुष्य को अज्ञान के सारे असमंजस से तथा सब पाप, दुःख ओर बुराई के सारे बंधनों से मुक्त करता है- यो वेत्ति असंमूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापे: प्रमुच्यते। जो मानव जीव इस परम आत्मज्ञान के प्रकाश में रह सकता है वह जगत् के काल्पनिक या इन्द्रियगोचर अर्थों के परे पहुँचता है। वह उस अद्वैत की अनिर्वचनीय शक्ति को प्राप्त होता है जो सबके अतीत होने पर भी सबका पूरण करने वाला है, जो सबके परे भी और यहाँ भी एकरस है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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