गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
ये ही वे परमेश्वर हैं जिनकी वह भागवती प्रकृति, हम जो कुछ हैं उसका उद्गम है, पर निम्न प्रकृति के विकारों से ढंकी है; इसलिये मनुष्य को अपनी निम्न बाह्य प्रकृति से, जो त्रुटिपूर्ण और तर्त्य है, पीछे हटकर अपनी मूल अमृतस्वरूपा शुद्ध बुद्ध भागवती प्रकृति को प्राप्त होना होता है ये परमेश्वर सब पदार्थों के अंदर एक हैं, वह आत्मा है जो सबके अंदर रहती है और जिसके अंदर सब रहते और चलते-फिरते हैं; इसलिये मनुष्य को सब प्राणियों के साथ अपना अपना आत्मैक्य ढूंढ़ निकालना, सबको उस एक आत्मा के अंदर देखना और उस आत्मा को सबके अंदर देखना, सब पदार्थों और प्राणियों को, आत्मौपम्येन सर्वत्र, सर्वत्र आत्मवत् देखना और तदनुसार अपने मन, बुद्धि और प्राण के सब कर्मों में सोचना, अनुभव करना और कर्म करना होता है। ये ईश्वर यहाँ अथवा और कहीं जहाँ जो कुछ उसके मूल हैं और वे अपनी ही प्रकृति के द्वारा ये अंसख्य पदार्थ और प्राणी बने हैं, इसलिये मनुष्य को सब जड़ और चेतन पदार्थोें में उन्हींको देखना और पूजना होता है; सूर्य में, नक्षत्र में, फूल में, मनुष्य और प्रत्येक जीव में, प्रकृति के सब रूपों और वृत्तियों तथा गुणों और शक्तियों में वासुदेवः सर्वमितिः जानकर उन्हींके अविर्भाव का पूजन करना होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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