गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 322

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


बौद्ध धर्म जो इतना तपःप्रधान है और केवल जगनिमथ्यात्व को ही नहीं बल्कि अहं-मिथ्यात्व को भी इतनी कट्टरता के साथ मानने वाला है उसे भी अपनी मूल भित्ति लोकोत्तर कर्मानुष्ठान पर ही रखनी पड़ी और भक्ति के स्थान में जागतिक प्रेम और करुणा की एक विशेष आध्यात्मिक भावुकता को ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि ऐसा करने से ही बौद्ध मानव जाति के लिये एक सार्थक मार्ग, एक सच्चा भक्तिप्रद धर्म बन सकता था। जगत को भ्रम मानने वाले मायावाद तक को, कर्म और मन की उपाधियों के संबंध में उसकी इतनी आत्यंतिक तर्कनिष्ठुर असहिष्णुता के होते हुए भी, मनुष्य और जगत् में स्थित ईश्वर की तात्कालिक और व्यावहारिक सत्ता इसीलिये मान लेनी पड़ी कि यह साधना का प्रथम सोपान और प्रस्थान का सुविधाजनक प्रारंभ-स्थान बन सकता है; जो बात मायावाद के सिद्धांतों में नहीं आती वही बात, मनुष्य की वृद्धावस्था और मुक्ति के लिये उसके प्रयास को किसी प्रकार वास्तविक करार देने के लिये, मान लेनी पड़ी है। परंतु कर्मप्रधान और भक्तिप्रधान धर्मों में यह दुर्बलता है कि वे किसी भागवत वयक्तित्व तथा सीमित भगवत्ता में बहुत अधिक आसक्त रहते हैं।

और जब वे असीम अनंत भगवान् की भावना करते भी हैं, तब भी उससे ज्ञान की पूर्ण तृप्ति नहीं होती क्योंकि वे उसकी चरम और परम स्थिति तक जाने का कोई प्रयास नहीं करते। ये धर्म सनानत में पूर्ण लय और तादात्म्य के द्वारा उसके साथ पूर्ण मिलन के बहुत ही इधर रह जाते हैं-यद्यपि उस तादात्म्य तक किसी अन्य मार्ग से ( भले ही निरपेक्ष दृष्टि को लेकर न सही, क्योंकि वहाँ सब प्रकार के एकीभाव का आधार है ) मनुष्य में स्थित आत्मा को किसी-न-किसी दिन पहुँचना ही होगा। इसके विपरीत बुद्धिप्रधान निष्क्रिय अध्यात्मवृत्ति में यह दुर्बलता है कि वह अति तात्विक निष्ठा के द्वारा इस परिणाम पर पहुँचती है और अंत में उस मानव जीव को ही न-कुछ अथवा एक अयथार्थ कल्पना मात्र बना डालती है जिसकी सारी अभीप्सा का लक्ष्य अपने साधनकाल में सतत रूप से इसी तादात्म्यरूप मिलन को प्राप्त होना रहा है; क्योंकि जीव और उसकी अभीप्सा के बिना मुक्ति और मिलन का कुछ अर्थ नहीं हो सकता। यह विचारमार्ग जीवसत्ता की अन्य शक्तियों को जो कुछ थोड़ी-सी मान्यता देता भी है उसे भी एक ऐसे कनिष्ठ प्रारंभिक कर्म की कोटि में डाल देता है जो सनातन और अनंत का किसी प्रकार पूर्ण या संतोषजनक रूप से साक्षात्कार करने में समर्थ नहीं। पर ये चीजें भी जिन्हें यह विचारमार्ग अनुचित रूप से रोके रखता है अर्थात् कार्यक्रम संकल्प, प्रेम की प्रबल उत्कंठा, प्रत्यक्ष प्रकाश और सचेतन मनोमय पुरुष का सबको समाविष्ट करने वाला अंतर्ज्ञान-ये सब चीजें-भगवान् से ही आती हैं, उन्हींकी स्वरूपगत शक्तियों को निरूपित करती हैं और इसलिये उन्हींमें-जो इनके मूल हैं-इनके होने का कोई-न कोई औचित्य, और उन्हींमें इनकी स्वपरिपूर्णता की प्राप्ति का कोई-न-कोई शक्तिशाली मार्ग भी होना चाहियें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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