गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिल्कुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंतःप्रतीत पर निर्भर है। संसार में वस्तुतः दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने-अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यतः बाह्य अवस्था पर निर्भर है दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदद्विवेदक और विचार पर निर्भर करता है। गीता की शिक्षा यह नहीं कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृति नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो। गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है, नीचे गिरने के लिये नही; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है। समाज-धर्म के स्थान में गीता यहाँ भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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