गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
जीव की दुर्बलता और उसके मानवी बल का लड़खड़ाना उनकी इस कृपा में कोई फर्क नहीं लाता। ‘‘यही मेरी प्रतिज्ञा है”, अर्जुन से भगवान् स्वयं कहते हैं कि, ‘‘ जो कोई मेरी भक्ति करता है उसका नाश नहीं होता।”[2]पहले का प्रयास और तैयारी, जैसे ब्राह्मण की शुचिता और पवित्रता, कर्म और ज्ञान में श्रेष्ठ राजर्षि का प्रबुद्ध बल इत्यादि का इसलिये महत्त्व है कि इनसे प्राकृत मानवजीव के लिये यह विशाल दर्शन पाना और आत्मसमर्पण करना सरल होता है; परंतु इस प्रकार की तैयारी के बिना भी जो कोई इन मनुष्य-प्रेमी भगवान् की शरण लेते हैं वे चाहे वैश्य हों जो किसी समय धनोपार्जन तथा उत्पादन-श्रम के तंग दायरे के अंदर फंसे रहा करते थे या शूद्र हों जो सहस्रों कठोर प्रतिबंधों में आबद्ध रहते थे या स्त्री जाति हों जिसके आत्मविस्तार के चारों ओर समाज ने एक संकुचित घेरा खींच रखा है ओर इस कारण जिसकी उन्नति का मार्ग बराबर रुद्ध और प्रतिहत रहा है, ये ही क्यों बल्कि वे पाप योनि भी जिनके ऊपर पूर्व-कर्म ने खराब जन्म लाद दिया है, जो जाति बहिष्कृत हैं, परिया-चाण्डाल हैं वे भी अपने सामने भगवान् के पट खुले हुए पाते हैं। आध्यात्मिक जीवन में वे सब बाह्य भेद जिन्हें मनुष्य इतना अधिक मानते हैं, क्योंकि वे बहिर्मुख मन को बरबस अपनी ओर खींचते हैं, भागवत ज्योति की समता और पक्षपातरहित शक्ति की सर्वशक्तिमत्ता के सामने बिलकुल हवा हो जाते हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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