गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
परंतु उनका लक्ष्य इस पार्थिव जीवन के नश्वर सुख-दुःख के पश्चात् स्वर्ग के भोग प्राप्त करना होता है, वे वह महान् सुख चाहते हैं जो इहलोक में नहीं मिलते, पर वह सुख इस संकुुचित और दुःख-प्रधान जगत से विशालतर लोक का सुख होते हुए भी है वैयक्तिक और लौकिक ही। और, जो कुछ वे प्राप्त करना चाहते हैं, उसे श्रद्धा और विधिपूर्वक प्रयत्न से प्राप्त करते हैं जड़ जीवन और पार्थिव कर्म ही हमारे वैयक्तिक जीवन का सारा क्षेत्र नहीं है, न ही यह ब्रह्मांड का एकमात्र जीवन-प्रकार है। अन्य लोक भी हैं, और उनमें यहाँ की अपेक्षा अधिक आनंद है। इसलिये प्राचीन समय के श्रोती वेदत्रयी का बाह्यार्थ सीखते, पापों को धोकर पवित्र होते, देवताओं के दर्शन -स्पर्शन की सुधा का पान करते और यज्ञ-यागादि तथा पुण्य कर्मों द्वारा स्वर्ग के भोग पाने का प्रयत्न थे। जगत् के परे कोई परम वस्तु है इसमें यह जो दृढ़ विश्वास है और, इससे भी अधिक, दिव्य लोक को प्राप्त होने का यह जो प्रयास है इससे जीव को अपने मार्गक्रमण में वह बल प्राप्त होता है जिससे स्वर्ग के उन सुखों को वह प्राप्त कर ले जिनपर उसकी श्रद्धा और प्रयास केन्द्रीभूत हुए हों। परंतु वहाँ से जीव को फिर मर्त्यलोक में आना पड़ता है, क्योंकि उस लोक के जीवन के वास्तविक उद्देश्य का उसे कोई पता नहीं चला, उसकी अपलब्धि नहीं हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.17. 19
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